Saturday 09 November 2024 3:45 PM
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समाज में व्याप्त कुरीतियाँ ही विकास में बड़ी अड़चन : कृष्ण सिवाल

दिल्ली, समाजहित एक्सप्रेस (रघुबीर सिंह गाड़ेगांवलिया) l  व्यक्ति और समाज द्वारा किये गए प्रत्येक सकारात्मक व नकारात्मक कार्य से अपने राष्ट्र को निरंतर प्रभावित करता रहता है । इस प्रकार राष्ट्र का विकास और हास दोनों के लिए व्यक्ति और समाज ही उत्तरदायी है l अगर कोई व्यक्ति या परिवार पतनोन्मुख होगा, तो उसके समाज का भी वही असर होगा । अतएव किसी राष्ट्र के विकास के लिए उसके व्यक्ति या परिवार और समाज का विकसित होना आवश्यक है ।

आज सामाजिक जीवन मे अनेक प्रकार की रूढियां और कुरीतियां व्याप्त है l इन सभी रूढियों और कुरीतियों के कारण सामाजिक विकास को ग्रहण लग चुका है, जिससे व्यक्ति या परिवार और समाज परेशान है । इन रूढियों और कुरीतियों के कुप्रभाव क्या और कैसे है । इस प्रकार के तथ्यों पर समाजहित में प्रकाश डालने के लिए समाज शास्त्री कृषण कुमार सिवाल जी द्वारा लिखित आवश्यक ओर समुचित लेख प्रस्तुत है :-

मैं अपनी बात अजमेर निवासी श्री मोहनलाल सिवासिया के लेख की एक लाईन “कुछ मनुवादी रैगर मठाधीशों ने समाज में ऐसा अंधविश्वास घोला है कि निकलने का नाम ही नहीं ले रहा” से आरंभ करता हूँ । सन 2001 में समाज की जाज़म पर मुझे अपने विचार रखने का सौभाग्य मिला तो मैने विचार प्रकट किए कि समाज के विकास में गति लाने के लिए हमें समाज के मंदिरों की परिसंपत्तियों में बच्चों की शिक्षा का उचित प्रबंध करना होगा क्योकि इन स्थानों के अलावा इस गरीब समाज के पास कोई विकल्प नहीं है बच्चों को प्रारंभ में ही दी गई तर्कसंगत शिक्षा से अंधविश्वास और पाखंड पर रोक लगेगी जिससे भविष्य का एक सुशिक्षित समाज तैयार होगा ।

हमें यह भी समझना होगा कि हमारे इतिहासकार लेखकों ने यह भ्रांति क्यों पाल कर रखी कि हम क्षत्रिय  राजपूत या सगरवंशी राजपूत रहे हैं । यहॉ मेरा मानना यह है कि क्षत्रिय, ब्राह्मण या वैश्य समाज का व्यक्ति भले ही कितना भी नीच कार्य करता हो ,तब भी वह नीच नहीं होता वहीं हम पढ-लिख कर ऊचें ओहदों पर है , अच्छे ईमानदार सफल व्यवसायी अथवा उद्योगपति भी है … मगर फिर भी हैं अछूत  !! ऐसा क्यों है ??  कहीं कालांतर से ही हमारे पाखंडवाद,  अंधविश्वास और व्यसन ग्रस्त  क्रमों में लिप्तता ने ही तो हमें अछूत नहीं बनाया ! यह विचारना जरूरी है ।

हमें कुंठित विचारधारा तथा जबरदस्ती लाद दी गई बेमतलब की परंपरागत रूढ़ियों का त्याग करना ही चाहिए। 

व्यसन तजें : नशे का आदी होना , जुआ- सट्टा- मटका – लाटरी खेलने में पैसा और समय बर्बाद करना  और  परस्त्रीगमन जैसे व्यसनों का त्याग करने से ही घर-परिवार में समृद्धी कायम रहती है समाज में सम्मान मिलता है । अतः चारित्रिक दोषपूर्ण इन आदतों का त्याग कर इस अछूत काया का अस्त करके कायस्थ होना होगा । मैं किसी प्रकार के धर्म परिवर्तन की बात नही बोल रहा हूॅ । हमें एक-दुसरे पर भरोसा करना ही होगा और सहयोगी ,  संगठित,  शिक्षित व बहादुर कौम बनना होगा ताकि कोई भी किसी रैगर पर उत्पीड़न ना कर सके । *क्या हम सब मिलकर इतना कार्य भी नहीं कर सकते ?*

हम सभा- पंचायतों में चिल्लाते रहते हैं – बोल ..गंगा माई की ज..य  ! इसका आशय क्या है ? किसी चालाक ने हमारे अनपढ़ भोले भाले लोगों को एक पत्थर की मूर्ती पकड़ा कर भ्रमा दिया कि यह रैगरों की कुलतारिणी देवी है ,इसे पूजते रहो और हम बेवजह ही गंगा पुत्र हो गये जबकि महाभारत किताब के अनुसार भी देखा जाए तो गंगा का एक ही पुत्र था -भीष्म  ! और वह भी अविवाहित ही था तो संतान उत्पन्न होने का तो सवाल ही पैदा नहीं ताकि कोई अगली पीढ़ी तैयार हो रही हो । सच्चाई यह है कि गंगा नदी हिमालय के गंगोत्री हिमनद के गौमुख स्थान से शुरु होकर बंगाल की खाड़ी के सुंदरवन तक भारत की मुख्य नदी के रूप में कुल 2525 किलोमीटर की दूरी तय करती है । इतने लम्बे सफ़र के दोनों किनारों के किसी भी हिस्से की ज़मीन पर रैगर समाज की बाहुल्य बस्ती या इलाका अथवा रैगरों की धाणीं का ना तो कालांतर में कोई संदर्भ मिलता और ना ही वर्तमान में बसी हुई दिखती , तो गंगा कुल देवी , कुल तारिणी कैसे हुई  ??

अगर गंगा के आसपास स्थानों पर रैगर समाज बसा होता तो निश्चय ही वहॉ बसे अन्य समाजों की भांत आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से संपन्न होता , खेत खलियान होते , व्यवसायी  सछूत कौम होते और रैगर अछूत तो बिल्कुल नहीं कहलाते । प्रतीत होता है कि समाज के कुछ ठेकेदार लोगों ने और हमारे साधु-संतों ने गरीब और अनपढ़ समाज को इसी भरोसे में रखते हुए अपना सनातनी समय व्यतीत कर लेने की मंशा से ही ये सब किया हो । अतः हमें गंगा को फक्त एक नदी मानना चाहिए ना कि रैगरों की रैगरों की कुलतारिणी पूजनीय देवी । हम हर वर्ष लाखों रूपया इसी अंधभक्ती में बहा देते हैं । इस कुरीति को जितनी जल्दी त्याग कर आगे बढने का योजन करें उतना ही समाज का भला होगा ।

विवाह समारोह में बेवज़ह खर्च करना कोई समझदारी नहीं  । भारत पैरावनी एक ऐसी कुरीति है जिसमें अधिकांश परिवार कर्ज में डूब रहे हैं । जैसे अगर मेरी बहन के बच्चे का विवाह है और समाज की झूठी प्रतिष्ठा में हमारा परिवार मायरा देने के चक्कर में कर्ज में डूब ले । साथ ही हमारी बहन की देवरानी-जिठानी के मायके वाले भी बोझ तले बेवज़ह ही दबें ! अगर ये सब ना हो और सारा उत्सव शादी आयोजन वाला परिवार ही वहन करें तो सभी सम्मानीय रिश्तेदार भी खुश रहेंगे और वैवाहिक उत्सव का नज़ारा ही अलग रोनक लिए हुए होगा इसलिए इस प्रकार की कुरीति स्वयं से ही त्यागनी होगी ।  दुल्हन के माता-पिता द्वारा दुल्हा-दुल्हन की पग धुलाई करवाया जाना एक अपमानित क्रिया है  इसे बंद कर दुल्हन को दुल्हे के माता पिता द्वारा आशिर्वाद देना और दुल्हे को पुत्र समान मानते हुए दुल्हन के माता-पिता द्वारा आशिर्वाद देने की परंपरा स्वयं से ही लागु कर देनी चाहिए ताकि ये नवदंपति हर वरिष्ठ का आदर सम्मान करना सीख लें ।

पोंगा पंडितों द्वारा शुभ मुहूर्त निकलवाना, अपने पैदा किये हुए बच्चे का नाम करण करवाना, जात-जणुले देने जाना, बिमार का इलाज पंडे,  मौलवियों से करवाना, सर हिलाती ढोंगी औरतों पर अंधविश्वास करना, नौकरी, व्यवसाय में सफलता का श्रेय तथाकथित देवी-देवों को  देते हुए फिजूल खर्च जैसी कुरीतियों को त्यागना ही हितकर होगा । बिमारी में भगवान केवल और केवल अस्पताल और डॉक्टर ही होते है ! यकीन किजिए  । किसी भी पूजा पाठ , साधु – मौलवी द्वारा दी गई भभूत बिमार व्यक्ति को मौत तक पहुंचाने में बहुत कारगर साबित होते हैं । अतः मूर्खतापूर्ण इन कार्यो में अपनी बरबादी से बचना ही सही कदम होगा ।

मृत्यु हो जाने पर रिश्तों के लिहाज से मुर्दे पर कफन का अम्बार लगा देना भी आज के संदर्भ में एक समाजिक बुराई ही है ऐसे समय में नर हेतू ससुराल पक्ष का कफ़न और मादा हेतू पिहर या समधाने से कफ़न ही काफी है अगर परिवार गरीब है तो कफन के बजाय खिचड़ी की जगह कुछ भी नकद देवे ताकि परिवार को सहारा मिले । वहीं मृतक परिवार अस्थि विसर्जन के बहाने हरिद्वार जाने में हजारों रूपया बहा देते हैं जो कि बेमतलब का आर्थिक बोझ  होता है । इस कुरिति को खत्म करना होगा । याद रहे कि जीते जी यश और अवयश ही स्वर्ग और नर्क होता है । पगड़ी रस्म पर सिर्फ एक पगड़ी ही काफ़ी होनी चाहिए वो भी बिना किसी के वस्त्रों ,तौलियों के ।इस दुखद समय पर कपड़े देने का कोई मतलब नहीं बनता मगर फालतु की परम्परा बना कर ये कुरितियॉ चलाई गई जिससे रिश्तेदारों पर नाज़ायज बोझ लाद दिया गया है यह कुरीति  खुद से ही खत्म कर देनी होगी  ।

मौसर पर मौत का जश्न मनाने हुए भोज का आयोजन और अस्थि विसर्जन में रिश्तेदारों संग हरिद्वार पर्यटन करना एक अनुचित फैशन बन गया है इस कुरीति को स्वतः ही बिना किसी की परवाह किए त्याग देना चाहिए।  अस्थि विसर्जन घर के मुख्य सदस्य करने जाए ताकि इस दुखद समय फिजूल खर्च ना हो ।

दहेज का विरोध अथवा दहेज लेने से मना कर देना बेटे के घरवालों का दायित्व बन जाए तो हर बेटी अपने ससुराल चली जाए।  इसमें वर पक्ष की प्रतिष्ठा बढ़ेगी साथ ही संबंध भी सुदृढ़ होंगे । आजकल विवाह समारोह को नुमाइश का बाजार बनाया जा रहा है जबकि यह पवित्र समारोह पारिवारिक ही होना चाहिए।  दहेज विरोधी समाज का सम्मान अन्य समाज भी करेगा ।

लल्ला हो तो मोक्ष मिले : समाज की इस भयंकर बुराई को भी अपने विवेक से ही दूर करने की आवश्यकता है । नियोजित परिवार आज की प्राथमिकता है । ज्यादा से ज्यादा दो बच्चे ही पैदा करने चाहिए चाहे वो बेटे पैदा हो या बेटियॉ ! बेटे के लिए गर्भ में बेटी को मार देने से ज्यादा बड़े हत्यारे कोई पति- पत्नि नहीं हो सकते । नाज़ायज तरीके से गर्भ गिराने से गर्भाशय के कैंसर की संभावना से इंकार नही किया जा सकता । दुसरी  तरफ अगर पांच बेटी और एक बेटा होगा तो  भविष्य में पांच बहनों का मायरा भरते भरते ही वो तो जीते जी ही मर जायेगा । खुद ही सोचें ऐसा करने में आपने कितना पाप कमाया ?? अतः परिवार नियोजित रखो ताकि सिमित आमदनी में भी परिवार शिक्षित होगा और समृद्ध होगा ।

हम लोगों ने जीविका अर्जन की शिक्षा तो ग्रहण कर ली और ऊंची कुर्सियों को भी शोभायमान कर रहे है, अपनी औलादों को भी यही किताबी रटंत शिक्षा दिला रहे है मगर जीवन जीने की शिक्षा और संस्कारों से अभी तक वंचित ही हैं l

आओ हम सब मिलकर एक प्रयास करें , एक-दुसरे की परवाह करें और समाज को संगठित कर मजबूत बनाने की ओर कदम बढ़ाते हुए एक ऐसा समाज बनें कि गिरे रक्त जहॉ रैगर का …..वह ठौर तीर्थ बन जाए ।

????????✍????के के सिवाल

इंजीनियरिंग, बी एस डब्ल्यू,  एम एस ओ , जे एम सी  दिल्ली  ।

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