रैगर समाज के स्वामी श्री केवलानंद जी महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय
दिल्ली, समाजहित एक्सप्रेस
स्वामी श्री केवलानंद जी महाराज का जन्म 17 अगस्त, 1911 को सिंध हैदराबाद (पाकिस्तान) में हुआ । आपके पिता का नाम मुघनाराम जी कुरड़िया तथा माता का नाम सोनी देवी है । आपका जन्म का नाम भींयाराम था । आप स्वामी केवलानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए । आप प्रारम्भ से ही गम्भीर प्रकृति के थे । सांसारिक जीवन से आपको मोह नहीं था । आपका झुकाव सन्यास की तरफ था । आपकी उम्र जब 18-19 वर्ष की हुई तब घरवालों ने आपके विवाह की बात सोची । आप सांसारिक मायाजाल में फसना नहीं चाहते थे । इसलिए गृह त्याग कर अज्ञातवास को चले गए ।
काशी और हरिद्वार में अज्ञात जीवन व्यतीत करते हुए अध्ययन में सारा समय लगाया । मेहनत और लगन से विभिन्न विषयों का गहन अध्ययन किया और संस्कृत सीखी । 15 दिसम्बर, 1938 को संन्यासी संस्कृत पाठशाला अपारनाथ मठ से साहित्य और वेदान्त दो विषयों में आचार्य की पदवी (डिग्रियें) प्राप्त की । आगे चलकर इसी पाठशाला में आपने अवैतनिक पढ़ाने का कार्य किया । आप साहित्य तथा वेदान्त पढ़ाते थे ।
आपने संस्कृत के कई ग्रन्थों का भाषानुवाद किया । विभिन्न विषयों पर पुस्तकें लिखी । आप ज्योतिष के भी अच्छे ज्ञाता थे । विद्वता, ज्ञान तथा पाण्डित्य के गुणों के आधार पर आपको मठाधीश एवं महामण्डलेश्वर की गद्दी पर बिठाया गया । आगे चल कर जातिगत दुराग्रहों के कारण महामण्डलेश्वर का पद छोड़ना पड़ा तथा मठ से भी विदाई लेनी पड़ी । इसके बाद आपने दिल्ली में आकर रामेश्वरी नेहरू नगर, करौल बाग में अपना आश्रम स्थापित किया जो ”स्वामी केवलानन्द आश्रम” के नाम से जाना जाता है ।
आपने जीवन भर अपने हाथों से ही खाना बना कर खाया । अपने कपड़े स्वयं धोते थे । आप स्वच्छता पसन्द सन्यासी थे । आप महिलाओं का सम्मान करते थे मगर महिलाओं द्वारा आपके चरण-स्पर्श करना वर्जित था। स्वामीजी सद्चरित्र के सन्यासी थे।
हरिद्वार में रैगर धर्मशाला की स्थापना में आपकी महत्वपूर्ण सेवाएं रही है। स्वामी ज्ञानस्वरूपजी महाराज, स्वामी गोपालरामजी महाराज तथा स्वामी रामानन्दजी महाराज के साथ रह कर आपने हरिद्वार धर्मशाला भवन खरीदने तथा धन संग्रह कराने में सहयोग किया । समाज के लोगों को आर्थिक योगदान देने के लिए प्रेरित किया । स्वयं ने भी ग्यारह हजार रूपये का अंशदान दिया ।
19 मार्च, 1988 को आप ब्रह्मलीन हुए । आपके दिल्ली स्थित आश्रम को ट्रस्ट द्वारा चलाया जा रहा है।
(साभार- चन्दनमल नवल कृत ‘रैगर जाति का इतिहास एवं संस्कृति’)