Wednesday 04 December 2024 12:39 PM
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डॉ. भीमराव अम्बेडकर जी राजनीति को जनकल्याण का माध्यम मानते थे : बाबूलाल बारोलिया

दिल्ली, समाजहित एक्सप्रेस l  हर साल 14 अप्रैल को बाबा साहब डॉ.भीमराव अंबेडकर की जयंती बड़े हर्षोल्लास और धूमधाम से मनाई जाती हैं । गूगल सर्च इंजन के मुताबिक सैकड़ों देशों और करोड़ों अंबेडकरवादी अनुयायियों के द्वारा मनाई जाने वाली अंबेडकर जयंती विश्व की सबसे बड़ी जयंती मानी जाती हैं । इस वर्ष बाबा साहब की 132वीं जयंती मनाई जा रही इस अवसर पर राष्ट्र, राष्ट्रीयता एवं भारत राष्ट्र पर उनके विचारों को समझने की आवश्यकता है । महान राष्ट्रवादी बाबा साहब ने भारत राष्ट्र के प्रति जिस संवेदना के साथ अपने विचारों को सामने रखा, उसे समझना वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अति आवश्यक है ।

डॉ. भीमराव अम्बेडकर जी राजनीति को जनकल्याण का माध्यम मानते थे । वह स्वयं के बारे में कहते थे- ‘मैं राजनीति में सुख भोगने नहीं, अपने सभी दबे-कुचले भाइयों को उनके अधिकार दिलाने आया हूं । मेरे नाम की जय-जयकार करने से अच्छा है मेरे बताए हुए रास्ते पर चलें ।’ वह कहते थे- ‘न्याय हमेशा समानता के विचार को पैदा करता है । संविधान मात्र वकीलों का दस्तावेज नहीं यह जीवन का एक माध्यम है । निस्संदेह देश उनके योगदान को कभी भुला नहीं पाएगा ।’ हमें उनके निम्न विचारों को भी समझना आवश्यक है ।

1. राजनीतिक क्षेत्रः

डॉ. भीमराव अम्बेडकर भारत के आधुनिक निर्माताओं में से एक माने जाते हैं । उनके विचार व सिद्धांत भारतीय राजनीति के लिए हमेशा से प्रासंगिक रहे हैं । दरअसल वे एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था के हिमायती थे, जिसमें राज्य सभी को समान राजनीतिक अवसर दे तथा धर्म, जाति, रंग तथा लिंग आदि के आधार पर भेदभाव न किया जाए । उनका यह राजनीतिक दर्शन व्यक्ति और समाज के परस्पर संबंधों पर बल देता है ।

उनका यह दृढ़ विश्वास था कि जब तक आर्थिक और सामाजिक विषमता समाप्त नहीं होगी, तब तक जनतंत्र की स्थापना अपने वास्तविक स्वरूप को ग्रहण नहीं कर सकेगी । दरअसल सामाजिक चेतना के अभाव में जनतंत्र आत्मविहीन हो जाता है । ऐसे में जब तक सामाजिक जनतंत्र स्थापित नहीं होता है, तब तक सामाजिक चेतना का विकास भी संभव नहीं हो पाता है ।

इस प्रकार डॉ. अम्बेडकर जनतंत्र को एक जीवन पद्धति के रूप में भी स्वीकार करते हैं, वे व्यक्ति की श्रेष्ठता पर बल देते हुए सत्ता के परिवर्तन को साधन मानते हैं । वे कहते थे कि कुछ संवैधानिक अधिकार देने मात्र से जनतंत्र की नींव पक्की नहीं होती । उनकी जनतांत्रिक व्यवस्था की कल्पना में ‘नैतिकता’ और ‘सामाजिकता’ दो प्रमुख मूल्य रहे हैं जिनकी प्रासंगिकता वर्तमान समय में बढ़ जाती है । दरअसल आज राजनीति में खींचा-तानी इतनी बढ़ गई है कि राजनैतिक नैतिकता के मूल्य गायब से हो गए हैं । हर राजनीतिक दल वोट बैंक को अपनी तरफ करने के लिए राजनीतिक नैतिकता एवं सामाजिकता की दुहाई देते हैं, लेकिन सत्ता प्राप्ति के पश्चात इन सिद्धांतों को अमल में नहीं लाते हैं ।

लेखक : बाबूलाल बारोलिया, (सेवानिवृत), अजमेर

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस लेख में लेखक के निजी विचार हैं । आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए समाजहित एक्सप्रेस उत्तरदायी नहीं है ।

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